जेएनयू छात्र संघ चुनाव का मतलब सिर्फ चुनाव नहीं है, जानें क्यों खास होता है ये इलेक्शन

नई दिल्ली

बात जब छात्र संघ चुनाव की आती है तो जेएनयू के चुनाव का एक अलग ही लेवल होता है। देश के सभी विश्वविद्यालयों के चुनाव एक तरफ और 'पूरब का ऑक्सफर्ड' कहे जाने वाले जेएनयू छात्र संघ के चुनाव एक तरफ। हाथों से बने पोस्टर, अध्यक्ष पद के उम्मीदवारों की बीच बहस ले कर कई चीजें हैं जो जेएनयू के छात्र संघ चुनाव को अलग बनाती हैं। जेएनयू की पहचान एक ऐसी यूनिवर्सिटी के रूप में रही है जो वामपंथी विचारधारा का गढ़ रहा है। इस यूनिवर्सिटी से देश में एक से बढ़कर एक स्कॉलर और रिसर्चर निकले हैं। अब सवाल है कि आखिर हम लोग जेएनयू चुनाव की चर्चा क्यों कर रहे हैं। दरअसल, जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी प्रशासन ने छात्र संघ चुनाव को लेकर सर्कुलर जारी कर दिया है। जेएनयू (JNU) में छात्र संघ के चुनाव मार्च में होंगे।

2019 के बाद नहीं हुए चुनाव
दरअसल, जेएनयू में छात्र लंबे समय से चुनाव कराए जाने की मांग कर रहे थे। पिछले कुछ महीनों से अलग-अलग स्टूडेंट्स यूनियन प्रदर्शन भी कर रहे थे। जेएनयू प्रशासन ने कहा है कि छात्र संघ के चुनाव लिंगदोह कमिटी की सिफारिशों के तहत ही कराए जाएंगे। जेएनयू स्टूडेंट यूनियन (जेएनयूएसयू) का चुनाव पीएचडी के लिए अकैडमिक सेशन शुरू होने के 6 से 8 हफ्ते के बीच होंगे। ऐसे में संभव है कि यह चुनाव 15 मार्च से 29 मार्च तक किसी भी तारीख को हो सकता है। यूनिवर्सिटी में जेएनयूएसयू के चुनाव 2019 के बाद नहीं हुए। पहले कोरोना की वजह से चुनाव टाले गए थे। इसके बाद सेशन में देरी की वजह से चुनाव नहीं हो पाए थे।

वाम विचारधार का गढ़ रहा है जेएनयू
जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी वामपंथी विचारधार का गढ़ रही है। यूनिवर्सिटी के छात्र संघ चुनाव में ऑल इंडिया स्टूडेंट्स एसोसिएशन (AISA), स्टूडेंट्स फेडरेशन ऑफ इंडिया (SFI) का दबदबा रहा है। पिछले चार दशकों (1974-2008 और 2012-17) में, छात्र संघ के वार्षिक चुनावों में, स्टूडेंट्स फेडरेशन ऑफ इंडिया (SFI) ने 22 बार छात्र संघ अध्यक्ष पद का चुनाव जीता है। एसएफआई भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) की छात्र शाखा है। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी मार्क्सवादी-लेनिनवादी (CPI-ML) का छात्र संगठन, ऑल इंडिया स्टूडेंट्स एसोसिएशन (AISA) ने 11 बार जीत हासिल की है। वहीं, स्वतंत्र समाजवादी प्लेटफार्मों के उम्मीदवारों ने आठ बार जीत हासिल की है। 1991 और 2000 के चुनावों को छोड़कर केंद्र की सत्ता में रही पार्टियों का प्रतिनिधित्व करने वाले उम्मीदवार हमेशा अध्यक्ष पद का चुनाव में हारे हैं। वहीं, डेमोक्रेटिक स्टूडेंट्स फेडरेशन (DSF) और ऑल इंडिया स्टूडेंट्स फेडरेशन (AISF) के अलावा बिरसा अंबेडकर फुले स्टूडेंट्स एसोसिएशन (बीएपीएसए) भी अपनी उपस्थिति दर्ज कराते रहे हैं।

जेएनयू चुनाव और बहस
जेएनयू चुनाव के दौरान छात्र राजनीति के इर्द-गिर्द होने वाली बहस एक अलग ही स्तर की होती है। इन बहसों में भारत की दो विभिन्न समझ मार्क्सवाद और राष्ट्रवाद के बीच विभाजन साफ दिखता है। अधिकांश जेएनयू एक्टिविस्ट शिक्षा जगत और उससे परे उदार, बहुलवादी, समावेशी और धर्मनिरपेक्ष मूल्यों पर जोर देते हैं। जेएनयू निस्संदेह आलोचनात्मक युवाओं का प्रतीक है। यह आश्चर्य की बात नहीं है कि बड़ी संख्या में छात्र खुद को राजनीतिक रूप से कट्टरपंथी मानते हैं। जेएनयू में कट्टरवाद को विपक्षी राजनीति के एक रूप के रूप में देखा जाता है। यह देखकर कोई आश्चर्य नहीं होता है कि स्थानों और लोगों को दर्शाने वाले शब्दों को छोड़कर यहां के चुनाव या अन्य कार्यक्रम से जुड़े पैम्फलेटों में विरुद्ध (Against) शब्द का सबसे अधिक इस्तेमाल किया जाता है।

छात्र लोकतंत्र का प्रतीक JNU मॉडल
जेएनयूएसयू चुनावों के लिए चुनाव समिति, जो छात्रों से बनी है, चुनावों के अच्छे संचालन की निगरानी करती है। अध्यक्ष पद की बहस शैक्षणिक वर्ष का सबसे अधिक भाग लेने वाला कार्यक्रम है। इसमें राजनीतिक संगठन तर्क-वितर्क और बयानबाजी के आधार पर और कार्यकर्ताओं के राजनीतिक और सामाजिक नेटवर्क का उपयोग करके एक-दूसरे के खिलाफ प्रतिस्पर्धा करते हैं। दिल्ली विश्वविद्यालय छात्र संघ (डूसू) चुनावों के विपरीत, जेएनयू के चुनाव शायद ही कभी बाहुबल या धन की राजनीति पर निर्भर होते हैं। इसमें किसी राजनीतिक अभियान के खर्च में मुख्य रूप से पोस्टर प्रिंटिंग और गोंद की लागत शामिल होती है। विडंबना यह है कि वही लिंगदोह समिति की सिफारिश (एमएचआरडी 2006), जिसने 2008-12 में चुनावों पर प्रतिबंध के लिए आधार के रूप में कार्य किया, ने राजनीति के जेएनयू मॉडल को छात्र लोकतंत्र का प्रतीक माना था।

2016 के बाद बदल गई छवि?
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) परिसर में फरवरी 2016 में कथित 'राष्ट्र-विरोधी' नारों के लिए छह जेएनयू कार्यकर्ताओं पर राजद्रोह का आरोप लगाए जाने के बाद हुए महत्वपूर्ण विरोध प्रदर्शन के बाद से एक नया मोड़ ले लिया। इसे यूनिवर्सिटी में लंबे समय से चली आ रही राजनीतिक संस्कृति को खत्म करने का प्रयास के रूप में देखा गया। वाम छात्र संघ समर्थकों का कहना था कि यह देश भर के केंद्रीय विश्वविद्यालयों में शैक्षिक विविधता को कमजोर करने की समन्वित महत्वाकांक्षा की शुरुआत है। उस समय यूनिवर्सिटी कैंपस में कश्मीर की आजादी के मुद्दे और अफजल गुरु और मकबूल भट की न्यायिक हत्याओं पर चर्चा के लिए आयोजित कार्यक्रम में कथित तौर पर राष्ट्र-विरोधी नारे लगाए गए थे। उस समय एबीवीपी परिसर में संयुक्त वाम मोर्चे के विरोध के रूप में उभरी थी। दूसरी तरफ, अधिकांश वामपंथी राजनीतिक संगठनों ने संवैधानिक प्रक्रिया और कानून के शासन के प्रति अपनी प्रतिबद्धता की बात की थी। जेएनयू चुनाव में पिछले बार 2019 में हुए चुनाव में 5 हजार से अधिक छात्रों ने वोटिंग की थी।

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